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अरे, कुछ तो सच्चाई बूझो!

Modi governmentImage Source: UNI

Modi government: कौम और देश के दिमाग को मानों दीमक ने खा लिया हो! लोगों को समझ ही नहीं आ रहा कि वे किस अनुपात में लूटे जा रहे है! केंद्र सरकार ने संसद में बताया है कि 2019-20 से 2023-24 के मध्य पेट्रोलियम पर कर/ उपकर/ शुल्क से उसने 36 लाख 58 हजार करोड़ रुपए प्राप्त किए। याकि वसूले।

सन् 2014-15 में पेट्रोलियम पदार्थों से केंद्र-राज्य सरकारों को तीन लाख 32 हजार करोड़ रुपए की कमाई थी वही सन् 2023-24 के वर्ष में सात लाख 51 हजार करोड़ रुपए थी।

ऐसे ही 2017-18 में जीएसटी की वसूली 7.19 लाख करोड़ रुपए थी वह पिछले साल सन् 2023-24 में 20.18 लाख करोड़ रुपए थी।

ये अप्रत्यक्ष टैक्स है। इस टैक्स में आम आदमी को मालूम नहीं पडता कि पेट्रोल-डीजल के भुगतान या रेस्टोरेंट में खाने या किसी खरीद के बिल के साथ सरकार ने उसकी जेब से पैसा निकाल लिया है।

सवाल है दस वर्षों की इस रिकार्ड तोड़ वसूली के बदले में 140 करोड़ लोगों को सरकार से क्या मिला? जवाब सन् 2024-25 के बजट में प्रस्तावित स्वास्थ्य तथा शिक्षा की मद पर खर्च का एक आंक़ड़ा है। और यह बहुत शर्मनाक है।

भारत इस वर्ष लोगों के स्वास्थ्य पर जीडीपी का सिर्फ 0.21 प्रतिशत तथा चिकित्सा पर 0.2 प्रतिशत राशि खर्च कर रहा है।

यह भी जानना चाहिए कि इस वर्ष का केंद्र सरकार का कृषि खर्च कोई दो लाख करोड़ रुपए का है। और इसी में खाद्यान्न, उर्वरक, मनरेगा, किसान सम्मान राशि की सब्सिडियां भी शामिल हैं।

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सरकार बेइंतहां टैक्स वसूल रही

दूसरे शब्दों में सरकार बेइंतहां टैक्स वसूल रही है लेकिन उससे न खेतीबाड़ी के कायाकल्प, उसमें आमद बढ़ाने वाले विकास के लिए वह खर्च करती हुई है और न ही नए स्कूल, अध्यापकों की भर्ती या नए अस्पताल, डाक्टरों की भर्ती, शिक्षा व मेडिकल की गुणवत्ता बढाने, सेवाओं को विश्व स्तरीय बना रही है।

लेकिन हां, छोटे-छोटे झुनझुने हैं। जैसे आयुष्मान भारत आदि के जुमले हैं। अर्थात अधकचरे इलाज और अधकचरी शिक्षा से आबादी को झूले झुलवाने का फौरी छटांग भर खर्च।

सवाल है केंद्र और राज्य सरकारों की तब कमाई कहां जा रही है? पांच वर्षों में पेट्रोलियम पर टैक्स से केंद्र सरकार को जब इतनी कमाई हुई है तो वह आखिर जा कहां रही है?

जवाब में एक आंकड़ा यह है कि सन् 2023-24 में सरकारी बैंकों ने एक लाख 70 हजार करोड़ रुपए के कर्ज माफ किए। पांच वर्षों का यह कुल आंकड़ा कोई नौ लाख करोड़ रुपए है।(Modi government)

जाहिर है उद्योगपतियों, कंपनियों ने बैंकों का घपला किया और सरकार ने जनता से पाए टैक्स के पैसे से बैंकों के घाटे की भरपाई की। दूसरा खर्च है इन्फ्रास्ट्रक्चर में पूंजीगत निवेश।

हर साल कोई दस लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का खर्च और उसमें भी जनता से टोल टैक्स से एयरपोर्ट टैक्स आदि की वसूली अलग!

ऐसे ही देश में मैन्यूफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के लिए कंपनियों को प्रोडक्शन लिंक्ड इन्सेंटिव योजना आदि का खर्चा।

तो प्राथमिकता क्या हुई?

तो प्राथमिकता क्या हुई? गरीब, मध्य वर्ग से पेट्रोलियम, जीएसटी से वसूली और उन सेवाओं, उस इंफास्ट्रक्चर, उन योजनाओं पर खर्च, जिससे उद्योगपतियों के बूते विकसित भारत का झूठा सपना है।

एक वक्त था (मैं उस वक्त, समाजवाद के उन फलसफों का विरोधी रहा हूं) जब नेहरू ने माना था कि भारत में निर्धनता है इसलिए लोगों से टैक्स (अप्रत्यक्ष टैक्स) वसूलना उन्हें निचोड़ना है।

तभी नेहरू-इंदिरा सरकारों का खाने-पीने की चीजों, ईंधन पर टैक्स या तो था नहीं या न्यूनतम था। नेहरू की समाजवादी प्लानिंग में प्राइवेट सेक्टर के राष्ट्रीयकरण, विदेशी सहायता जैसे जरियों से पूंजी इकट्ठा कर स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालों और पूरे देश में सरकारी अस्पताल, सड़कें, रोटी, कप़ड़ा, मकान (बिना जीएसटी) देने की प्राथमिकता थी। (Modi government)

इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके उनकी प्राथमिकता में भी गरीबी हटाओ का मिशन घुसेड़ा। फिर पीवी नरसिंह राव उदारवाद ले कर आए तो उनके शासन में उद्यमशीलता, पूंजी निर्माण और रोजगारोन्मुख (अमेरिका से आईटी वीजा के कोटे बनवाने से ले कर आईटी निर्यात, उद्योग तथा सेवा क्षेत्र में प्रतिस्पर्धी छूट, विदेशी पूंजी आदि से) वह रीति-नीति बनाई की आश्चर्यजनक रूप में भारत में रिकॉर्ड संख्या में मध्यवर्ग फैला।

सेवाएं बेहतर हुईं। सेवाओं में रियल कंपीटिशन से जवाबदेही के साथ ग्राहकों के हितों की चिंता की गई। उपभोक्तावाद बना और मांग तथा आपूर्ति के चक्र में आर्थिकी के दौड़ने की स्वचालित दिशा थी।

पिछले दस वर्षों में कौन सी दिशा और दशा(Modi government)

जबकि पिछले दस वर्षों में कौन सी दिशा और दशा है? गरीब और गरीब बना है। मध्यवर्ग मारा जाता हुआ है। किसानों की उपेक्षा है।

वहीं उद्योगपतियों को भगाने वाली परिस्थितियां भी हैं! अब नौजवानों की पूरी फौज सरकारी नौकरी की और भागते हुए है! शिक्षा और स्वास्थ्य मंहगी हो जाने के बाद भी अशिक्षित तथा ज्यादा बीमार बनाने वाली है!

सचमुच समझ नहीं आता है कि ऐसा कैसे है जो भारत सरकार, मोदी के मंत्रिमंडल, संघ-भाजपा के थिंक टैंक में पांच-दस लोग भी नहीं हैं, जो ईमानदारी से यह सोच सकें, नरेंद्र मोदी-अमित शाह को निडरता से बता सकें कि अडानी का विकास, भारत का विकास नहीं है!

उलटे मध्य वर्ग दम तोड़ता हुआ है। गरीब और गरीब होता हुआ है। मान लें कि विदेशी याकि ऑक्सफेम जैसे संस्थानों का पचास प्रतिशत भारतीय आबादी के पास तीन प्रतिशत संपदा होने का हिसाब गलत हो लेकिन ये यदि भारतीय खरबपतियों की संख्या 102 से 166  होने का आंक़ड़ा देते हैं

और उनकी संपदा में 54 लाख करोड़ रुपए का आंकड़ा बता रहे हैं तो उसकी सच्चाई का तो तुरंत हिसाब लग सकता है। उसी से मालूम हो जाएगा कि क्या झूठ है और क्या हकीकत?

दरअसल जैसे भारत के बेसुध लोगों को अपनी आर्थिकी, शैक्षिक, सियासी निरक्षरता का भान नहीं है वैसे ही भारत के बौद्धिक वर्ग, भाजपा-संघ और देश के कथित कुलीन वर्ग की भी आर्थिक साक्षरता लगभग खत्म है।

सब नियति भरोसे हैं। बाकी आबादी रेवड़ियों के जुमलों, उसकी राजनाति और शेयर बाजार की फिरकनी में खोई हुई है!(Modi government)

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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