जब अमेरिका ने अपने यहां बाहरी कंपनियों की पहुंच सीमित या प्रतिबंधित करने की नीति अपना रखी है, भारत के प्रति उसके रुख को मुक्त बाजार की सोच के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। बल्कि इसे जोर-जबरदस्ती कहना ज्यादा ठीक होगा।
वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल संभवतः इसी महीने दोबारा अमेरिका जाएंगे। यह संकेत है कि उनकी इस हफ्ते खत्म हुई यात्रा कामयाब नहीं रही। खबरों के मुताबिक गोयल आयात शुल्क में कटौती का जो ऑफर लेकर गए थे, उसे अमेरिका ने अपर्याप्त माना। अब वाणिज्य मंत्री नए प्रस्ताव लेकर जाएंगे। संभवतः अमेरिका भारत में टैरिफ की दर शून्य करवाने पर अड़ा हुआ है। वैसे बात अब सिर्फ टैरिफ की नहीं रही है। इसकी पुष्टि वाणिज्य राज्यमंत्री जितिन प्रसाद के लोकसभा में दिए बयान से होती है। प्रसाद ने कहा- ‘भारत और अमेरिका टैरिफ और गैर-टैरिफ बाधाओं को घटा कर और आपूर्ति शृंखला का एकीकरण कर एक-दूसरे के बाजार में अधिक पहुंच पर ध्यान दे रहे हैं।’
प्रसाद ने कहा कि दोनों देश द्विपक्षीय व्यापार समझौते पर बात कर रहे हैं, जिसके इस वर्ष के अंत तक पूरा होने की उम्मीद है। स्पष्टतः अमेरिका ने भारतीय बाजार में पहुंच और अमेरिकी कंपनियों के लिए ‘समान धरातल’ हासिल करने के तमाम मुद्दों को भारत के सामने रखा है। उसकी व्यापार एजेंसी पहले ही भारत में- खास कर यहां के औषधि उद्योग में- बौद्धिक संपदा अधिकारों के हनन का आरोप लगा चुकी है। इसके अलावा संकेत हैं कि सरकारी खरीद नीति, देशी कंपनियों को संरक्षण, और डब्लूटीओ नियमों के तहत विकासशील देश के नाते भारत को मिले खाद्य सुरक्षा के विशेष अधिकारों के सवाल को भी डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन उठा रहा है। संकेत यह भी है कि इन मामलों में अपनी तमाम शर्तों को मनवाने का रुख उसने अपना रखा है।
जिस दौर में खुद अमेरिका ने भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को पलटने और अपने बाजार में बाहरी कंपनियों की पहुंच सीमित या प्रतिबंधित करने की नीति अपना रखी है, उस समय उसका यह रुख किसी रूप में मुक्त बाजार की सोच के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। बल्कि इसे जोर-जबरदस्ती के रूप में देखना ज्यादा ठीक होगा। दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत सरकार ने इस पर अस्पष्ट रुख अपना रखा है। उधर भारत के कारोबारी सिर्फ अपनी खाल बचा लेने की फिराक में जुटे हैं। जाहिर है, भारत के लोगों के लिए यह चिंतित होने का वक्त है।