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मॉडल की खामी है

महंगे स्वास्थ्य बीमा प्रीमियम का असर यह हुआ कि पिछले वर्ष लगभग दस प्रतिशत बीमाधारक अपना प्रीमियम नहीं चुका पाए। अन्य दस प्रतिशत अधिक जरूरतमंद बीमाधारकों के मामले में प्रीमियम बढ़ने की दर 30 प्रतिशत के करीब रही।

मुद्रास्फीति पर नियंत्रण की आम चर्चा के बीच इस ओर बहुत कम लोगों का ध्यान होगा कि देश में मेडिकल मुद्रास्फीति की दर 14 प्रतिशत है। सीधे शब्दों में इसका मतलब यह है कि साल भर पहले की तुलना में इलाज पर औसत खर्च 14 फीसदी बढ़ गया है। इसका असर स्वास्थ्य बीमा पॉलिसियों के प्रीमियम पर पड़ा है। वैसे यह दोहरी प्रक्रिया है। पॉलिसी प्रीमियम बढ़ने का असर भी मेडिकल मुद्रास्फीति पर होता है, जिसके परिणामस्वरूप फिर से प्रीमियर की दर बढ़ती है।

एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक महंगे प्रीमियम का असर यह हुआ कि पिछले वर्ष लगभग दस प्रतिशत बीमाधारक अपना प्रीमियम नहीं चुका पाए। अन्य दस प्रतिशत अधिक जरूरतमंद बीमाधारकों के मामले में प्रीमियम बढ़ने की दर तकरीबन 30 प्रतिशत रही। गौरतलब है कि उम्र बढ़ने के साथ प्रीमियम की रकम बढ़ती चली जाती है। वैसे पांच से दस प्रतिशत बढ़ोतरी तो सभी पॉलिसियों पर हुई है। नतीजतन बड़ी संख्या में बीमा धारकों ने अपने कवरेज का रेंज घटाया है, ताकि प्रीमियम कम हो जाए। एक अनुमान के मुताबिक भारत में लगभग 40 फीसदी आबादी स्वास्थ्य बीमा कवरेज में है। इसमें बड़ी संख्या उनकी है, जिन्हें ये सुरक्षा आयुष्मान भारत या इस जैसी राज्य सरकारों की योजना के तहत मिली हुई है।

इसमें मुश्किल यह है कि सरकारें अक्सर अस्पतालों को समय पर भुगतान नहीं करतीं, इसलिए ऐसी योजनाओं के लिए उत्साहित प्राइवेट अस्पतालों की संख्या घटती जा रही है। वैसे भी बीमा योजना चाहे जो हो, उसका लाभ अस्पताल में भर्ती होने पर ही मिलता है (बशर्ते अधिक प्रीमियम देकर ओपीडी सुविधा ना ली गई हो।) इसलिए स्वास्थ्य बीमा से आम इलाज और स्वास्थ्य मानदंड बेहतर करने में अक्सर मदद नहीं मिलती। नतीजा है कि आधुनिक इलाज आम जन की पहुंच से बाहर होता चला गया है। वैसे यह सिर्फ भारत की कहानी नहीं है। अमेरिका में हाल में एक स्वास्थ्य बीमा कंपनी के अधिकारी की हत्या के बाद चली बहस ने इस मॉडल में मौजूद खामियों को स्पष्ट कर दिया है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसके बावजूद सरकारें इस मॉडल पर पुनर्विचार करने तक को तैयार नहीं हैँ।

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