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मुद्दा कुछ और है

इतने बड़े स्तर पर गहराते जा रहे शक को कौन दूर करेगा? आयोग ने भी कभी आत्म-निरीक्षण करने की जरूरत महसूस नहीं की है। क्या उसके आचरण भी संदेह का कारण हैं? इन प्रश्नों पर उसे गंभीरता से सोचने की जरूरत है।

भारतीय निर्वाचन आयोग ने महाराष्ट्र के विपक्षी गठबंधन की चुनाव गड़बड़ी संबंधी शिकायतों को सिरे से खारिज कर दिया है। आयोग का यह जवाब अपेक्षित ही था। आयोग के मुताबिक उसे राज्य के 36 जिला अधिकारियों से रिपोर्ट मिल चुकी हैं। इनके मुताबिक सभी 288 सीटों पर ईवीएम वोटों और वीवीपैट में दर्ज मतों का मिलान करने पर उनमें कोई विसंगति नहीं मिली। आयोग की बातें सच हैं या नहीं, यहां असल मुद्दा यह नहीं है। विपक्ष की यह आलोचना जायज है कि ईवीएम में गड़बड़ी या चुनाव प्रक्रिया के दूषित होने का सवाल वह तभी उठाता है, जब उसकी हार हो जाती है। जहां विपक्षी दल जीत जाते हैं, वहां वे नतीजे को बिना किसी एतराज के गले लगा लेते हैं।

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साथ ही संगठन, चुनाव अभियान, एवं मतदाताओं का भरोसा जीतने में रह गई अपनी कमियों का कभी ठोस आकलन वे नहीं करते। इसके बावजूद मसला यह है कि भारत की चुनाव प्रक्रिया को लेकर संबंधित हितधारकों के एक बड़े हिस्से में संदेह पैदा हो चुका है। इन हितधारकों में विपक्ष भी है, सिविल सोसायटी, और आम जन का एक बड़ा हिस्सा भी। यह किसी रूप में भारतीय लोकतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं है।

मुद्दा है कि इतने बड़े तबके के बीच में गहराते जा रहे शक को कौन दूर करेगा? क्या इसकी प्राथमिक जिम्मेदारी निर्वाचन आयोग की नहीं है? मुश्किल यह है कि आयोग ने भी कभी आत्म-निरीक्षण करने की जरूरत महसूस नहीं की। क्या उसके आचरण भी संदेह का कारण हैं?

इन प्रश्नों पर उसे गंभीरता से सोचने की जरूरत है। सत्ता पक्ष के लिए यह अहम सवाल है कि निर्वाचन आयोग के गठन की प्रक्रिया अगर सुप्रीम कोर्ट ने तय कर दी थी, तो उसने संसदीय विधेयक के जरिए उसे क्यों बदला? ऐसे पहलू समाज के किसी हिस्से में अविश्वास का कारण बने हों, तो क्या उसे अतार्किक कहा जाएगा? इन प्रश्नों पर सिर्फ एकतरफा बयान देने से बात नहीं बनेगी। जरूरत इस बात की है कि निर्वाचन आयोग इस पूरे प्रकरण पर सभी हितधारकों के साथ विस्तृत संवाद की शुरुआत करे। तभी पूरे देश में विश्वास का माहौल बनेगा।

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