फिर भी भारतीय की आर्थिक प्रगति का नैरेटिव पेश किया जाता है, तो उसे दुस्साहस ही कहा जाएगा। अगर इस कथानक को लोग स्वीकार करते हैं, तो उसका यही अर्थ माना जाएगा कि भारत में आर्थिक अज्ञान का साया आज भी घना है।
वित्त वर्ष 2023-24 में कृषि पर निर्भर श्रमिकों की संख्या 25 करोड़ 90 लाख तक पहुंच गई। इसके पहले वाले वित्त वर्ष में ये 23 करोड़ 30 लाख थी। इस तरह 2017-18 से भारतीय Economy की पीछे की ओर शुरू हुई दौड़ ना सिर्फ जारी है, बल्कि उसकी रफ्तार और तेज हो गई है। इसे इसलिए पीछे की ओर दौड़ कहा गया है, क्योंकि हर विकसित Economy की दिशा यह रही है कि लोग रोजगार के लिए कृषि से उद्योग या सेवा क्षेत्र की ओर जाते हैं। विकसित होने का एक पैमाना यह दिशा भी है। आंकड़ों के मुताबिक 2004-05 से 2016-17 तक भारत भी इसी दिशा में बढ़ रहा था। उस दौरान कृषि पर निर्भर श्रमिकों की संख्या में छह करोड़ 60 लाख की गिरावट आई थी। उसके बाद दिशा बदल गई।
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यहां पर इस ओर ध्यान खींचना उचित होगा कि 2016 वह साल था, जब नोटबंदी लागू की गई। साल भर बाद उसके प्रभाव जाहिर होने लगे। उस वर्ष (2017-18) भारत में कृषि निर्भर मजदूरों की संख्या 19 करोड़ दस लाख थी। तब से ये तदाद लगतार बढ़ी है। अब तक इसमें कुल छह करोड़ 80 लाख की वृद्धि हो चुकी है। इस तरह यह साफ है कि 2004-05 से 2016-17 के बीच जो प्रगति हुई, वह पलट कर अब नकारात्मक हो चुकी है। यह भी रेखांकित करने का पहलू है कि इस दरम्यान जिन राज्यों में यह बढ़ोतरी सबसे ज्यादा हुई, वे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और राजस्थान हैं, जिन्हें कभी अपमान भाव के साथ “बीमारू” कहा जाता था।
दूसरा ध्यान खींचने वाला पहलू यह है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर निर्भर श्रमिकों के बीच महिलाओं की संख्या तेजी से बढ़ी है। भारतीय वर्क फोर्स में महिलाओं की स्थिति पहले भी बेहतर नहीं थी। मगर गुजरे सात वर्षों में यह बदतर होती गई है। इसके बावजूद भारतीय की आर्थिक प्रगति का नैरेटिव पेश किया जाता है, तो तथ्यों की रोशनी में उसे दुस्साहस ही कहा जाएगा। अगर इस कथानक को लोग स्वीकार करते हैं, तो उसका यही अर्थ होगा कि भारत में आर्थिक अज्ञान का साया आज भी घना है।